स्वास्तिक का अर्थ ही , ‘शुभ हो’ या ‘कल्याण हो’ है।

भारतीय संस्कृति का आधार है स्वास्तिक इसीलिए कहा गया है स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु अर्थात् महती कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता सूर्य हमारा कल्याण करें।
स्वास्तिक का अर्थ ही , ‘शुभ हो’ या ‘कल्याण हो’ है। किसी भी कार्य के शुभारंभ करने से पहले बनाया जाने वाला स्वास्तिक मंगल दायक एवं समृद्धि का प्रतीक है।
स्वास्तिक में देवताओं की शक्ति और सामर्थ्य सहित
भगवान गणेश का रूप समाहित है.
स्वास्तिक के मध्य केंद्र में ब्रह्म ,प्रथम चारों भुजाएं धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष है तथा द्वितीय चार भुजाएं सायुज्य ,सालोक्य , सारुप्य , समीप्य ,चार अग्रिम भुजाएं मन ,बुद्धि ,चित ,अहंकार तथा चार बिंदु आस्था ,,श्रद्धा,विश्वास,समर्पण के प्रतीक है ।
वास्तु दोष को दूर करने के लिए भी स्वास्तिक का इस्तेमाल किया जाता है.
भारत के अलावा यह यूनान, चीन, नेपाल, जापान जैसे देशों में भी स्वास्तिक को शुभ माना जाता है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, और महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता हैं ।
सनातन धर्म में स्वस्तिक चिह्न बहुत महत्वपूर्ण तथा सौभाग्य का सूचक है। स्वस्तिक को चंदन, कुमकुम या सिंदूर से बनाने पर ग्रह दोष दूर होतें है तथा भुजाओं के समीप दोनों रेखाएं गणेश जी की दोनों पत्नियों अर्थात रिद्धी और सिद्धी का प्रतीक हैं उनसे आगे की दो रेखाएं उनके दोनों पुत्र योग और क्षेम का प्रतीक हैं जो भगवान गणेश के पूरे परिवार का प्रतीक है।
स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ ‘कर्त्ता’ या करने वाले से है। इस प्रकार ‘स्वस्तिक’ शब्द का अर्थ हुआ ‘अच्छा’ या ‘मंगल’ करने वाला मंगल दायक । ‘अमरकोश’ में भी ‘स्वस्तिक’ का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना बताया गया है ।
वास्तु शास्त्र के अनुसार, स्वस्तिक का चिह्न ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्व या उत्तर दिशा में बनाना सबसे उत्तम माना जाता है। इसके स्थान पर अष्टधातु या तांबे से बना स्वस्तिक का चिह्न भी प्रयोग भी मान्य है ।यह धन लाभ के योग के साथ शुभता देता है
सामान्यतः स्वस्तिक दो रेखाओं से बनता है जो एक दूसरे को काटती हैं। जो आगे बढ़ती है और मुड़कर उसकी चार भुजाएं बन जाती है जिस स्वस्तिक में रेखाएं आगे की ओर मुड़कर दाहिनी ओर मुड़ती हों, वह शुभ माना जाता है। स्वास्तिक की विशेषता है कि यह हर दिशा से एक जैसा दिखता है।
ऋग्वेद में स्वास्तिक को सूर्य माना गया है और उसकी चारों भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। इसके अलावा स्वास्तिक के मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में भी निरूपित किया जाता है। अन्य ग्रंथो में स्वास्तिक को चार युग, चार आश्रम (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) का प्रतीक भी माना गया है। भारतीय संस्कृति में स्वास्तिक को में प्राचीन समय से ही मंगल एवं उन्नति का प्रतीक माना गया है इसलिए दीपावली सहित शुभ कार्य ,अनुष्ठान में स्वास्तिक अवश्य बनाया जाता है। डॉ ललित तिवारी

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