भिटौली देने की रीत रिवाज पर चढ़ा आधुनिकता का रंग

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नैनीताल। पहाड़ के परंपरागत रीति रिवाज व तीज त्योहारों पर आधुनिकता का रंग चढ़ने के साथ डिजिटाइजेशन होने लगा है।
चैत्र का महीना पहाड़ों में विवाहित स्त्रियों के लिये मायके वाला महीना होता हैं। इस महीने उनके मायके से “भिटौली “आती हैं। अपने बेटियों की कुशल क्षेम जानने की यह परम्परा सदियों से पहाड़ों में चली आ रही हैं। चैत्र मास बहन, बेटियों को भेंटने का महीना हैं।
90 के दशक पहाड़ के अधिकांश गांवों तक सड़क नहीं थी, संचार सुविधाएं सीमित आबादी तक थी तो तीज त्यौहार, रीत परंपरा मानने के तौर तरीके ऐसे थे कि रिश्तों में आत्मीयता व गर्माहट लाते थे। बहन बेटियों को भिटौली देने के लिए महिलाएं बांस की डलिया या धोती के टुकड़े में पूरी पकवान, खाद्यान्न सामग्री बांधकर सिर में रखकर जाती थी। चैत्र मास में पहाड़ी रास्तों में महिलाएं सिर पर पकवान लेकर बेटियों को भिटौली देने अक्सर नजर आती थी। ससुराल में बेटियां भिटौली के रूप में आये पूरी पकवान पूरी गांव बिरादरी में प्रसाद के रूप में बांटती थी। इससे गांव में सबको पता चल जाता था कि फलां के घर में भिटौली आई है। भिटौली देने के बाद मायकेवाले जब लौटते थे तो बहन बेटियां के विलाप से माहौल भावुक कर देने वाला हो जाता था। अब वक्त बदलने के साथ भिटौली देने की रीत में आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। डिजिटल माध्यम से बहन बेटियों को भिटौली के रूप में दक्षिणा की धनराशि ट्रांसफर की जा रही है तो जो लोग यदि आ रहे हैं तो वह पकवान के बजाय मिठाई आदि गांव पड़ोस में बांटकर रीत निभा रहे हैं। संस्कृतिकर्मी व शिक्षक भास्कर जोशी कहते हैं, कि अभी पहाड़ के चुनिंदा गांवों में भिटौली के तहत बेटियों के लिए घर से तैयार पूरी पकवान ले जाने की रीत बची है, लेकिन यह परंपरा अंतिम स्थिति में हैं। बुजुर्ग महिलाओं की पीढ़ी इस रीत को जगाए हैं। समाजशास्त्री प्रो भगवान बिष्ट कहते हैं, विकास के साथ रिश्तों में आत्मीयता में कमी आई है। डिजिटल क्रांति से दूरियां आसान तो हुई हैं लेकिन रिश्तों की गर्माहट में कमी आई है। तीज त्योहारों में भी असर पड़ना स्वाभाविक भी है।

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