सैमद्यो – जात्रा व जलाभिषेक संस्कृति अंक -बृजमोहन जोशी!

नैनीताल । श्रावण मास में आशुतोष भगवान शिव शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। उत्तराखंड में प्राचीन काल से शिव और शक्ति की उपासना प्रचलित रही है।मासों में श्रावण मास और दिनों में सोमवार का दिन भगवान शिव का अति प्रिय है।
उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में इस श्रावण मास में दूर दराज के गांवों से पूरे गांव के लोग मास भर “जात्रा के रूप में सैमद्यो” (जागेश्वर) आते हैं। इस जात्रा में गांव के सभी स्त्री – पुरुष, बूढ़े, बच्चे शामिल होते हैं और गांव के सारे “डंगरिये” देव नृत्य करते हुए देव हथियारों के साथ यात्रा में चलते हैं। डगंरियों का नाचते हुए यात्रा में चलना लोक नाट्य का सा दृश्य उपस्थित करता है।
इस पर्वतीय अंचल में सम्पूर्ण श्रावण मास घर-घर में शिवार्चन (पार्थिव पूजन) का आयोजन होता है तथा अधिकांश लोग जागेश्वर जाकर भी पार्थिव पूजन करते हैं। पार्थिव शब्द की व्युत्पत्ति पृथ्वी शब्द से हुई है। पार्थिव पूजा का अर्थ है पृथ्वी के तत्वों से बने तत्वों की पूजा जैसे -मिट्टी, गोमय ,मक्खन,नमक,चावल
आदि।शिवालयों में भी शिव लिंगों का जलाभिषेक किया जाता है विशेष रूप से जागेश्वर और विमाण्डेश्वर में।
हमारे इस अंचल में भगवान शिव के नाम के साथ श्वर लगाये जाने वाले बहुत से नाम है जैसे –
दुंदेश्वर , बेतालेश्वर, एड़ेश्वर, बागेश्वर,जागेश्वर,,कपिलेश्वर, दण्डेश्वर, पाताल भुवनेश्वर, सोमेश्वर, भीमेश्वर, गोपेश्वर,
लंटेश्वर,बद्रेश्वर ,पंचेश्वर,पुंगकेश्वर,
मुक्तेश्वर, बालेश्वर,बिनेश्वर, पिनाकेश्वर… आदि!
जलाभिषेक के सम्बन्ध में पुराणों में कहा गया है कि – एक बार इन्द्र लोक में देव राज इन्द्र अप्सराओं के साथ बैठे हुए थे तो दुर्वासा ऋषि ने वहां प्रवेश किया अप्सराओं के मध्य होने के कारण उन्होंने दुर्वासा ऋषि को नहीं देखा तो दुर्वासा ऋषि ने इन्द्र को श्राप दे दिया।हे इन्द्र। तुझे अपनी “श्री” पर इतना घमंड है जा तेरी ‘श्री ‘ समाप्त हो जाए। और कुछ समय पश्चात इन्द्र की “श्री” अर्थात वैभव समाप्त हो गया।तब देवराज इन्द्र भगवान विष्णु के पास पहुंचे और इस श्राप से बचने का उपाय पूछा तो भगवान विष्णु ने उन्हें समुन्द्र मंथन का सुझाव दिया और कहा कि समुद्र मंथन से जब श्री लक्ष्मी जी का अवतरण होगा तब तुम्हें पुनः श्री प्राप्त हो जायेगी।
समुद्र मंथन से जब कालकूट विष निकला तो भगवान शिव ने उसका पान किया। उस विष के प्रभाव से भगवान शिव मूर्छित होने लगे तो सर्व प्रथम पितामह ब्रह्मा जी ने उस विष के प्रभाव को कम करने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक किया इसके बाद तमाम देवताओं व मानवों ने भी भगवान शिव का जलाभिषेक किया और तभी से शिव पर जलाभिषेक कि परमात्मा यहां शुरुआत प्रचलित हुई। विशेष रूप से इस श्रावण मास में जलाभिषेक का विशेष महत्व बतलाया गया है।