शिक्षकों के पदोन्नति न करवा पाना विभागीय/शासन स्तर के अधिकारियों की अक्षमता है मर्तोलिया

नैनीताल l 28 सितम्बर 2025 को श्रीनगर गढ़वाल में राजकीय शिक्षकों की विशाल रैली, उनके प्रति विभागीय, शासन स्तर व सरकार के स्तर से की गयी उपेक्षापूर्ण व्यवहार की अभिव्यक्ति है। विभागीय अधिकारियों द्वारा इस दौरान विभिन्न प्रकार के आदेश निर्गत कर शिक्षक संघ के संघर्ष को कमजोर करने का असफल प्रयास मात्र है। आन्दोलन जब भी होता है तो आन्दोलन को खत्म करने का प्रयास सरकार करती ही है यह भी कोई नयी बात नहीं है। वर्षो से शिक्षकों के पदोन्नति न करवा पाना विभागीय/शासन स्तर के अधिकारियों की अक्षमता है। शिक्षकों की वरिष्ठता इतने वर्षों से विभागीय अधिकारी तय नहीं कर पाये हैं तो इसकी जिम्मेदारी किसकी है, इसकी जिम्मेदारी प्रमुख रूप से नियोक्ता की है। यदि विभागीय अधिकारियों, शासन स्तर के अधिकारियों द्वारा समस्या का समाधान नहीं हो पाया तो शिक्षक दोषी नहीं है। यदि किसी शिक्षक के हितों को नुकसान पहुँचता है तो शिक्षक माननीय न्यायालय की शरण में जाता है तो इसके लिए शिक्षकों को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं है।
शासनादेश संख्या 4057/xxiv -2 /2013-23 (03)/2011 देहरादून, 20 दिसंबर 2013 के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य शैक्षिक (प्रशासनिक संवर्ग) सेवा नियमावली 2013 अस्तित्व में आया, उत्तराखण्ड जैसे 13 जिलों वाले व 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 86 हज़ार मात्र जनसंख्या वाले हिमालयी राज्य में 273 विभागीय प्रशासनिक संवर्ग के अधिकारियों के पद सृजित किये गये। प्रशासनिक व शैक्षिक संवर्ग पृथक कर यह उम्मीद की गयी कि इससे शैक्षिक गुणवत्ता में वृद्धि होगी। पूर्व में जब प्रशासनिक व शैक्षिक संवर्ग एक थे उस समय की उत्तरांचल शैक्षिक (सामान्य शिक्षा संवर्ग) सेवा नियमावली 2006 के अनुसार जहां विभाग में एक निदेशक, 05 अपर निदेशक स्तर के अधिकारी थे वहीं 2013 के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य शैक्षिक (प्रशासनिक संवर्ग) सेवा नियमावली 2013 के अनुसार 03 निदेशक, 10 अपर निदेशक पद का सृजन हुआ। एक महानिदेशक के पद का सृजन भी हुआ। उच्च स्तर के विभागीय अधिकारियों की संख्या बढ़ाने से सरकार के कोष पर आर्थिक बोझ तो बढ़ा लेकिन ये अधिकारी विभागीय समस्याओं का आज तक समाधान नहीं कर पाये। यदि नियोक्ता द्वारा शिक्षकों का वरिष्ठता निर्धारण हो गया होता तो पदोन्नतियां किये जाने की राह आसान हो सकती थी यद्यपि पदोन्नति आज भी हो सकती हैं।
09 नवम्बर 2000 में हमारा राज्य ‘उत्तरांचल’ नाम से अस्तित्व में आया जिसका नाम उत्तरांचल (नाम परिवर्तन) अधिनियम 2006 के अनुसार 1 जनवरी 2007 को उत्तरांचल का नाम ‘उत्तराखण्ड’ कर दिया गया। उत्तराखंड राज्य का गठन इन पहाड़ी क्षेत्रों के निवासियों की सांस्कृतिक, भौगोलिक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया गया था, यहाँ की जनता को उम्मीद थी कि पृथक राज्य बनने से राज्य उत्तरोत्तर विकास करेगालेकिन राज्य की सरकारी शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार चल रही है सभी परिचित हैं। उत्तराखण्ड में प्रधानाचार्यों के सृजित कुल 1385 में से 1180 पद, प्रधानाध्यापकों के कुल सृजित 910 में से 831 पद रिक्त चल रहे हैं। कुल मिलकर प्रधानाचार्यों व प्रधानाध्यापकों के कुल 2295 पदों में से 2011 पद रिक्त हैं अर्थात 88 प्रतिशत पद रिक्त हैं। अद्यतन आकंड़े को ध्यान में रखा जाय तो रिक्ति प्रतिशत बढ़ चुका है। विद्यालय के मुखिया का पद लम्बे समय से रिक्त होने के कारण प्रधानाचार्य के दायित्वों का निर्वहन प्रवक्ताओं व एलटी संवर्ग के सहायक अध्यापकों द्वारा अपने मूल विषय के शिक्षण के कार्य के साथ कई वर्षों से किया जा रहा है, यदि शिक्षकों का अपने विषय का बोर्ड परीक्षा परिणाम अपने विषय में शिक्षण हेतु पर्याप्त समय न मिल पाने के कारण कम रहता है तो विभाग के प्रशासनिक संवर्ग के अधिकारियों द्वारा शिक्षकों को प्रतिकूल प्रविष्टि दी जाती है। क्या यह प्रभारी प्रधानाचार्य के साथ अन्याय नहीं है ?
पदोन्नति न हो पाने का मूल कारण माननीय न्यायालय में योजित याचिकाओं का होना बताया जाता है। आइये विस्तार से समझते हैं कौन कितना दोषी हैं।
विवाद संख्या 01 – तदर्थ शिक्षकों की विनियमितीकरण की तिथि क्या हो ?
1990 से पूर्व तक उत्तर प्रदेश के समय में जब आज का उत्तराखण्ड तत्कालीन उत्तर प्रदेश का हिस्सा था शिक्षकों की नियमित भर्ती समय पर न हो पाने के कारण तदर्थ शिक्षकों (प्रवक्ता/एलटी सहायक अध्यापकों) की तदर्थ नियुक्ति की गयी। तदर्थ नियुक्ति (Ad hoc appointment) का अर्थ है किसी विशेष काम या आवश्यकता को पूरा करने के लिए किसी व्यक्ति को अस्थायी रूप से नियुक्त करना, जो सामान्यतया विभाग द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए या उस कार्य के पूरा होने तक होती है। यह एक स्थायी पद पर नियमित भर्ती प्रक्रिया के बिना की जाती है। ऐसी नियुक्तियाँ अक्सर रिक्त पड़े पदों को भरने या अप्रत्याशित जरूरतों को पूरा करने के लिए की जाती हैं।
4 सितम्बर 1990 को भुवन चन्द्र काण्डपाल को एलटी संवर्ग सहायक अध्यापक (अंग्रेजी) के पद पर राजकीय हाईस्कूल रैंगल अल्मोड़ा तदर्थ नियुक्ति दी गयी तथ 19 सितम्बर 1990 को उन्होंने कार्यभार ग्रहण किया। 21 नवम्वर 1995 को उत्तर प्रदेश शासन द्वारा एक शासनादेश निर्गत किया जिसके अनुसार विनियमतीकरण की तिथि (Date of regularization) 1 अक्टूबर 1990 रखी गयी। इस शासनादेश के अनुसार उत्तराखण्ड क्षेत्र के ऐसे सभी प्रवक्ता /एलटी संवर्ग के शिक्षकों को, जो राजकीय शिक्षण संस्थाओं में तदर्थ रूप से 1 अक्टूबर 1990 से पूर्व नियुक्त किये गए, को 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित किये जाने के आदेश थे। 21 नवम्वर 1995 के शासनादेश के अनुपालन में शिक्षकों की वरिष्ठता सूची नियोक्ता द्वारा तैयार की जानी थी। विभाग द्वारा याचिकाकर्ता एलटी संवर्ग तदर्थ सहायक अध्यापक भुवन चन्द्र काण्डपाल को 31 दिसम्बर 1995 को विनियमित किये जाने सम्बन्धी आदेश निर्गत किया। लेकिन विभाग द्वारा शासनादेश के अनुसार वरिष्ठता सूची नहीं तैयार की गयी। 18 सितम्बर 2001 को विभाग द्वारा बनाई गयी एलटी संवर्ग सहायक अध्यापकों की वरिष्ठता सूची में याचिका कर्ता का नाम नहीं था। याचिका कर्ता द्वारा विभाग को प्रत्यावेदन दिया गया तथा विभाग से उनको 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित मानते हुये उनका नाम वरिष्ठता सूची में शामिल करने को कहा गया लेकिन 17 जनवरी 2003 को उनके प्रत्यावेदन को विभाग द्वारा निरस्त कर दिया गया।
उच्च न्यायालय नैनीताल ने भुवन चन्द्र काण्डपाल व अन्य की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुये तदर्थ शिक्षकों को 21 नवम्बर 1995 के शासनादेश के अनुसार 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित करने का आदेश दिया था। इस आदेश के विरुद्ध उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने माननीय उच्च न्यायलय में विशेष अपील याचिका दायर की जिसे माननीय उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। पुनः उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने माननीय उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की, माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी माननीय उच्च न्यायालय उत्तराखण्ड के तदर्थ शिक्षकों को 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित किये जाने को सही ठहराया तथा माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी उत्तराखण्ड राज्य सरकार की विशेष अनुमति याचिका को निरस्त कर दिया।
इसी दौरान कुछ तदर्थ एलटी शिक्षकों व तदर्थ प्रवक्ताओं ने माननीय उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तथा कहा कि उनको भी भुवन चन्द्र काण्डपाल से सम्बंधित निर्णय के आधार पर विनियमितीकरण का लाभ दिया जाय। माननीय उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने मामला माननीय मुख्य न्यायाधीश को संदर्भित कर दिया। 2019 में माननीय उच्च न्यायालय की चीफ जस्टिस की अध्य्क्षता वाली खण्डपीठ ने इस मामले में निर्णय दिया कि याचिका कर्ताओं को भुवन चन्द्र काण्डपाल से समबन्धित मामले के आधार पर नियमित माना जाय अर्थात 21 नवम्वर 1995 के शासनादेश के आधार पर 1 अक्टूबर 1990 से विनियमित माना जाय। माननीय उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को प्रत्यावेदन राज्य सरकार को देने को कहा।
पहले तो राज्य सरकार ने माननीय उच्च न्यायालय के आदेश को माना परन्तु बाद में अपने ही आदेश को वापस ले लिया। तकनीकी रूप से वरिष्ठता निर्धारण केवल नियोक्ता कर सकता है कोई भी अन्य अधिकारी नहीं चाहे कोई नियोक्ता से उच्च अधिकारी ही क्यों न हो। शिक्षा सचिव के पूर्व के आदेश के अनुसार वरिष्ठता निर्धारण नहीं करने के शिक्षा सचिव के आदेश को प्रभावित शिक्षकों ने माननीय उच्च न्यायलय में याचिका दायर क्र चुनौती दी तो माननीय न्यायालय ने मामले को ट्रिब्यूनल में भेज दिया। ट्रिब्यूनल ने भी आदेश पारित कर कहा कि माननीय उच्च न्यायालय के की खण्डपीठ का निर्णय इस श्रेणी के सब शिक्षकों पर लागू होगा। ट्रिब्यूनल ने तीन माह के भीतर वरिष्ठता सूची जारी करने के निर्देश सरकार/विभाग को दिए। ट्रिब्यूनल के आदेश को राज्य सरकार के अलावा सीधी भर्ती से नियुक्त शिक्षकों ने याचिका दायर कर चुनौती दी।
उक्त प्रकरण के साथ-साथ शासनादेश संख्या 2158 के गायब होने का प्रकरण भी है। विभागीय /शासन स्तर के अधिकारी नियम संगत एलटी तथा प्रवक्ताओं की वरिष्ठता सूची आज तक नहीं तैयार कर पायेलेकिन दोष शिक्षकों को दिया जाता है अगर किसी शिक्षक का हित प्रभावित होगा तो वह न्यायालय की शरण में क्यों नहीं जायेगा।
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-डॉ.गोकुल सिंह मर्तोलिया
अध्यक्ष
कुमाऊं मण्डल
राजकीय शिक्षक संघ उत्तराखण्ड

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