सात गांव की शतचंडी, हर तीसरे साल आयोजन होता है शत चंडी महायज्ञ का, वेद पुराणों में लिखित व्याख्या है इस महायज्ञ की आलेख व छायांकन बृजमोहन जोशी




‌ नैनीताल l तैंतीस कोटि देवताओं की मान्यता वाले भारत देश में जितनी विविधता पाई जाती है, उतनी ही विविधता देवी – देवताओं की उपासना पद्धति में भी पाई जाती है। आदि शक्ति जगदम्बा माता को किसी न किसी रूप में सभी मतों में स्वीकार किया गया है। देवी पाठ जिसे सप्तशती कहा जाता है, का विशेष महत्व रहा है। सप्तशती के एका वृत्ति पाठ, सम्पूर्ण पाठ, शतचंडी पाठ, सहस्त्र चण्डी पाठ,‌लक्ष चण्डी पाठ,, संपुष्ट विधान आदि अनेक पाठ विधियां, प्रचलन में हैं इन सभी विधियों में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है शतचंडी यज्ञ।
इस वर्ष दिनांक ०५ अगस्त से ०९ अगस्त २०२४ तक गणनाथ धाम में शतचंडी का आयोजन किया जा रहा है। अनुमानतः भारद्वाज गोत्री पाण्डे कान्यकुब्ज ब्राह्मण श्री श्री बल्लभ महोपाध्याय जी ने गणनाथ मन्दिर कि स्थापना कर शिव लिंग की प्रतिष्ठा एवं पूजाअर्चना प्रारम्भ की।गणनाथ मन्दिर में अनुमानतः दो – तीन शताब्दियों से हर तीसरे वर्ष श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में आयोजित होने वाली शतचंडी का एक विशेष महत्व है। यज्ञ वेदी की स्थापना की जाती है। वेदी के निर्माण के बाद उसमें मूर्ति कि स्थापना की जाती है तदन्तर वैदिक रीति से स्वस्तिवाचन, गणेश पूजन,मातृ पूजन, पुण्याहवाचन,कलश स्थापना,प्रधान दीप प्रज्ज्वलन, तथा ग्रह स्थापना आदि कार्य होते हैं। पुनः वैदिक एवं तांत्रिक विधि से ६४ कमलदलों पर देवी स्थापना, आह्वान पूजन,, अर्चना आदि होती है।इस कार्य में बहुत समय लग जाता है फिर ब्राह्मण पूजन, पुस्तक पूजन वरण आदि करके प्रथम दिन १० पाठ होते हैं , द्वितीय दिवस पंचांगी पूजन, देवी पूजन के बाद १० ब्राह्मण २० पाठ करते हैं। तृतीय दिवस इसी क्रम से ३० पाठ तथा चतुर्थ दिवस ४० पाठ करते हैं इस प्रकार १०० पाठ पूरे होते हैं।यज्ञाधीस,ब्राह्मण,कोठार- प्रभारी तथा अन्य श्रृद्धालु लोग पांच दिन तक व्रत रखते हैं एक समय शाम को आरती के बाद भोजन करते हैं। इन चार दिनों में अवकाश के समय ब्राह्मण वर्ग प्रत्येक घर -गांव के लिए रक्षा तागे से रक्षा सूत्र भी तैयार करते हैं। पांचवें दिन यज्ञ का परायण होता है।
इसआलेख में गणनाथ कुलज्ञाति
परिवार श्री बल्लभ उपाध्याय जी के विषय में अठकिंसन महोदय ने अपने गजेटियर जिल्द १२ पृष्ठ ४२५ – ४२६ में लिखा है कि भारद्वाज गोत्री पाण्डे जी श्री श्री बल्लभ पाण्डे जो विद्वता के कारण महामहोपाध्याय पदवी से विभूषित थे लगभग सम्वत १४०५ के आसपास कुमाऊं में आये जैसा कि उल्लेख है –
“खोर ग्राम वासतव्यं कान्यकुब्ज कुलाग्ररणी।
श्री बल्लभ: समायात: कूर्मादोगण पर्वते”।
भारद्वाज गोत्रीय कान्यकुब्ज उपाध्याय ब्राह्मण। पूर्वज चन्द शासन में राज गुरु, जयचन्द के पतन के बाद उनके वंशधरों के साथ प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग) में बसे, सन् १४८९ मे श्री श्री बल्लभ उपाध्याय जयचन्द के वंशधरों को साथ लेकर उत्तराखंड पधारे और वहां सत्ता में प्रतिष्ठित किया।श्री बल्लभ उपाध्याय जी श्री अन्तर्राष्ट्रीय आनन्द भास्कर पंचांग के प्रधान संपादक दैवज्ञवर पण्डित श्रीआनन्दभास्कर लोहनी,
शास्त्री,ज्योतिषाचार्य जी के मूल पुरुष हैं। श्री भास्करानंद लोहनी जी के कृतित्व व व्यक्तित्व पर मैं अलग से अगले आलेख में जानकारी सांझा करूंगा।इस आलेख में श्री गणनाथ धाम का संक्षिप्त परिचय इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह स्थान श्री श्री बल्लभ उपाध्याय जी की तप स्थली रही है। श्री गण नाथ धाम कुमाऊं का एक ऐतिहासिक दर्शनीय पवित्र व साथ ही एकान्त व शान्ती दायक स्थान है। किन्तु यातायात के साधनों की समुचित जानकारी के अभाव में इस रम्य स्थान के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। श्री गणनाथ मन्दिर जाने के लिए दो ओर से मोटर मार्ग है। एक मार्ग अल्मोड़ा कौसानी मोटर मार्ग के द्वारा रणमण नामक स्थान से वन विभाग की सड़क है। दूसरा मार्ग अल्मोड़ा ताकुला बागेश्वर मोटर मार्ग से 2-3 किलोमीटर पैदल चलकर श्री गणनाथ मन्दिर पहुंचते हैं। श्री बल्लभ उपाध्याय जी -जिस प्रकार अनार्य जातियों व बौद्धों से कुप्रभावित गढ़वाल मंडल में आर्य संस्कृति की स्थापना का श्रेय जगद गुरु श्री शंकराचार्य जी को जाता है उसी प्रकार कूर्मांचल में आर्य संस्कृति की स्थापना और उसके विस्तार का श्रेय महर्षि श्रीबल्लभ उपाध्याय जी को जाता है। जिन्हें कत्यूरी, चन्द, व गोरखा शासन ने अपना राजगुरु तो बनाया ही साथ ही कूर्मांचल की समस्त जनता ने उन्हें अपना लोक गुरु माना। इस प्रकार वे कूर्मांचल के राजगुरु के साथ लोक गुरु भी रहे।श्री बल्लभ उपाध्याय भारद्वाज गोत्री कान्यकुब्ज उपाध्याय जातीय ब्राह्मण थे। उनके पूर्वज कन्नौज नरेश जयचन्द के राज गुरु रहे और जयचन्द के पतन के बाद उनके कूछ वंशधरों के साथ प्रतिष्ठानपुर (झूसी-प्रयागराज) में आ बसे। कालान्तर में चन्द वंशीय राजाओं ने कूर्मांचल में राज्य सत्ता प्राप्त करने की चेष्टा की तो उन्हें पूर्णतः सफलता नहीं मिली। ई० सन् 700 से 1488 तक अपने संघर्षो के बावजूद वे कत्यूरी राज्य के अधीन मांडलिक शासक ही बने रहे। चम्पावत से आगे उनका विस्तार नहीं हो पाया। सन् 1489 में जब कीर्ति चन्द शासनारूढ़ हुए तो वे झूंसी जाकर सादर श्रीबल्लभ उपाध्याय जी को अपने साथ चम्पावत ले आये।
श्री बल्लभ उपाध्याय जी असाधारण विद्वान होने के साथ साथ परम तपस्वी व सिद्ध साधक थे। जिनकी साधना व सहयोग से कीर्ति चन्द डोटी के शासक के आक्रमण को विफल करने में सफल रहे। साथ ही चौभैसी, सालम,फलदा कोट,ऊचाकोट,बारामंडल,कैड़ारौ,धनिया कोट कोटोली,छखाता,पालीपछाऊ में विजय प्राप्त कर राज्य विस्तार करने में सफल रहे। लगभग तीन चौथाई कुमाऊं पर एक स्वतन्त्र सार्वभौम राज्य की स्थापना की। इसी समय अल्मोड़ा जनपद का क्षेत्र गणनाथ भी चन्दों को प्राप्त हुआ। अल्मोड़ा विजय होते ही श्रीबल्लभ उपाध्याय जी ने अपनी मंत्र शक्ति से लौह शस्त्रागार भस्म कर पहला चमत्कार प्रदर्शित किया जिसका साक्ष्य कलमटीयाआज भी विद्यमान है। मंत्र शक्ति से लौह भस्म करने पर उन्हें लौहहोत्री उपाधि से सम्बोधित किया गया जो वर्तमान में अपभ्रंश रूप में लोहनी,लाहुमी, प्रचलित है। कुछ वंशधरों को पांडित्य कार्य में निपुण होने से पाण्डे और कुछ को वेदों के विद्वान (वैदिक काण्डों के ज्ञाता) होने के कारण काण्डपाल उपाधि दी गई। मूलतः उपाध्याय होने से पाण्डे या काण्डपाल यह शब्द जातिवाचक नहीं अपितु उपाधियां हैं।श्री बल्लभ उपाध्याय जी के बारे में डेढ़ हजार वर्ष पुराना कोई ऐतिहासिक प्रमाणिक विस्तृत साक्ष्य विद्यमान नहीं है। जन् साधारण में प्रचलित किंवदंतियों, कथानकों तथा राजकीय जिला अभिलेखों (गजेटियरों) ( मि० वाल्टन 165 तथा मि0 अठकिंसन भाग 35,पृ0 262 तथा भाग 12 पृ0425 / 26 ) में उपलब्ध है। श्रीबल्लभ उपाध्याय जी के वंशधर पाटिया, सीमा, लोहना, आटन, ताकुला, कोतवाल गांव, खाड़ी, थापला, पनेट गांव, भैसोड़ी, पतलखेत, कसून, पिलख, ओकाली, सुपाकोट, लछमपुर, बल्दगाड़, भगौती, कुमल्टा, कोटा, काटली, भेटा, भवड़कोट, बटगल, कांकड़ा, भटकोट, पचार, भनार, नाकोट, नेपाल,ढोलीगांव आदि सैकड़ों गांवों में तथा कूर्मांचल से बाहर भी जा बसे हैं। श्री बल्लभ व उनके वंशधरों को कत्यूरी, चन्द,व गोरखा शासन में सैकड़ों गांव सम्मान (जागीर) में प्राप्त हुए। अल्मोड़ा कलमटिया से लेकर गणनाथ तक का सत्तर या सौ घाटियों का विशाल क्षेत्र शत + आली अथवा सत्तर+आली= सत्ताली।गणनाथ पर्वत माला के पूर्व में बिनसर पर्वत माला के पश्चिम और दक्षिण में तथा कलमटिया और गोरिल पर्वत के उत्तर में स्थित सुरम्य घाटी को आम तौर पर शत्राली कहा जाता है। श्री गणनाथ के आगे ताकुला, अम्बिकेश्वर महादेव के बीच फैले हुए क्षेत्र को शत्राली के नाम से जाना जाता है। शत्राली निवासी भारद्वाज गोत्री कुलीन ब्राह्मण थे। यज्ञादि कार्यों,वेद वेदांगों में प्रवीण थे। तंत्र विद्या के ज्ञाता थे। अतः घर-घर में यज्ञादि कार्य हुआ करते थे। शत्राली शब्द शत्र +आवारलः का ही अपभ्रंश है और इसी से यह नाम सार्थक भी होता है। इस क्षेत्र में क्रमशः कांडे, लोहना, खाड़ी, ताकुला, पनेरगांव, थापला, और कोतवाल गांव हैं।इन सात गांवों के समूह को शत्राली नाम दिया गया है। किन्तु इनके अलावा भी बीना, अमरखोली, झाड़कोट, डोटयालगांव, भकुना, इनाकोट, बिसौली, तथा घाटी में स्थित दो और गांव भी समाहित रहे होंगे। क्षेत्र के अलावा बागेश्वर एवं सरयू घाटी में (काकड़ा, क्वेराली,नौ गांव, भेटा, आदि) बैरारौ में (ओकाली, लछमपुर, सूपाकोट, मठ, कांटली, आदि) गांव भी प्राप्त हुए। शत्राली की 100 या 70 घाटियों में श्री बल्लभ जी के वंशधरों के अलावा अनेक गांवों में उनके सेवकों ( क्षत्रिय आदि वर्ग )
के वंशधर तथा मित्रों के वंशधर ही बसते हैं। गणनाथ मन्दिर श्री गणनाथ मन्दिर शिव मंदिर है।एक सिद्ध मन्दिर है। जनश्रुति के अनुसार – शिव लिंग अनादि है जो चूने के पत्थर की गुफा में है।यह एक बहुत ही रमणीक तथा शान्ति दायक स्थान है। गुफा के उपर एक रमणीक पहाड़ी है इस पहाड़ी से एक शीतल जल धारा बहकर आती है जिसका जल शिव लिंग पर गिरता है। जंगल की गुफा में स्थित इस शिव लिंग के यहां होने की बात से जनता अनभिज्ञ थी। श्री बल्लभ उपाध्याय जी ने इस एकान्त स्थल को अपनी आध्यात्मिक साधना के लिए चुना तो उन्होंने ही इसे खोज निकाला था और विविध मन्दिर कि प्रतिष्ठापना की।तभी से गणनाथ समूचे कुमाऊं वासियों के ईष्ट देव हो गये। श्री गणनाथ में मूल गुफा एवं मूल शिव लिंग बिल्कुल अपनी प्राकृतिक अवस्था में है। लिंग के बाई ओर महिषासुर मर्दिनी शक्ति की स्थापना है। उसके आगे एक खप्पर है मनोकामना पूर्ति के लिए लोग इसे अनाज से भरकर दान देते हैं वैसे तो इसकी माप सोलह नाली अर्थात बत्तीस किलोग्राम है , परन्तु दाता कि इच्छा एवं उसकी दान परीक्षा के लिए कभी कभी पचास किलोग्राम तक अनाज इसमें आ जाता है। महिषासुरमर्दिनी शक्ति के बांयी ओर भगवान विष्णु के विराट रूप की विशाल प्रतिमा है यह मूर्ति शक एवं कुषाण काल की प्रतीत होती है।इसकी कला एवं शिल्प सौन्दर्य देखने योग्य है तथा मन में चिरस्थाई शक्ति प्रदान करता है। सामने दांयी ओर श्रेत्रपाल की स्थापना है। अन्य भी प्राचीन मूर्तियां एवं श्री विग्रह है। महिषासुरमर्दिनी शक्ति पूजा के लिए हर तिसरे वर्ष शतचंडी यज्ञ का आयोजन होता है। प्रति वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला आयोजित होता है। चतुर्दशी कि रात्रि को सन्तान प्राप्ति की मनोकामना से तथा अन्य मन वांछित फल कि प्राप्ति के लिए महिलाएं रात्रि भर जलता हुआ दीपक हाथ में रखकर श्री गणनाथ मन्दिर में खड़ी रहती है। शिव रात्रि पर्व पर प्रातः काल से ही शिव भक्तों कि भारी भीड़ लगनी प्रारम्भ हो जाती है। होली के पर्व पर चतुर्दशी के दिन सांयकाल सातों गांवों के लोग लोक वाद्यों के साथ मन्दिर आते हैं तथा सामूहिक रूप से होली गाकर शिव वंदन करते हैं।यह लोक परम्परा यहां आज भी है जो कई बरसों के अन्तराल के बाद भी देखने को मिलती है। गर्मियों में जब लम्बे समय तक वर्षा नहीं होती फसल सूखने लगती है तब किसी सात गांवों के शिल्पी वर्ग द्वारा एक बड़ा सा चौरस पत्थर पटाल को किसी एक स्थान पर बिछाया जाता है इसका परिणाम यह होता है कि तुरंत वर्षा होती है। कभी कभी तो श्रृद्धालु लोग भींगते भींगते घरों को जाते हैं।

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