स्वामी विरजानंद जयंती पर गोष्ठी संपन्न मूल शंकर को दयानन्द बनाया विरजानंद ने-आचार्य विमलेश बंसल दर्शनाचार्या

नैनीताल l आर्य युवक परिषद् के तत्वावधान में दंडी स्वामी विरजानन्द जयन्ती पर गोष्ठी का आयोजन किया गया।आप महर्षि दयानंद सरस्वती के गुरू थे।यह कोरोना काल से 580 वां वेबिनार था।

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वैदिक विदुषी विमलेश बंसल दर्शनाचार्या ने कहा कि गुरू विरजान्द व्याकरण के सूर्य थे उन्होने मूल शंकर को स्वामी दयानन्द बनाया।उन्होनें बताया कि किसी भी व्यक्ति के जीवन को संवारने में एक आदर्श गुरु की महती आवश्यकता होती है। स्वामी दयानंद का जीवन इसलिए संवरा कि उन्हें दंडी गुरुवर स्वामी विरजानंद जैसे उत्तम,आदर्श, प्रेरक,ज्ञानी,कठोर अनुशासन प्रिय गुरु मिले,जिसका अनुपालन महर्षि दयानंद जीवन भर करते रहे।सत्य की खोज हो वा बाह्य आडंबरों का उन्मूलन,पाखंडों पर प्रहार हो वा सामाजिक कुरीतियां, नारी,गौ की अवहेलना हो वा सती प्रथा,बाल विवाह जैसे सामाजिक अनाचार हों,विधवाओं पर अत्याचार हों वा ब्राह्मणों का एकाधिकार इत्यादि को समूल नष्ट करने में गुरु की प्रेरणा और गुरु के आदर्शों पर चलने की दृढ़ शक्ति और गुरु के प्रति भक्ति और ईश्वरीय कृपा ही कही जाएगी, जिसके कारण संसार के समक्ष स्वयं दर्पण बन कर,मां भारती के सच्चे पुत्र बन,असत्य से छिपे सत्य के मुख को खोल,हम सबके लिए एक दिशा तैयार की।वस्तुत: प्रभाव उन्हीं गुरुओं का पड़ता है जिनका जीवन बोलता है जिह्वा नहीं।प्रज्ञाचक्षु डंडी स्वामी विरजानंद का चित्र देखते ही उनकी अस्थि पिंजर सी काया स्वयमेव उनके त्याग और तपस्या को सम्मुख रख देती है।पंजाब के करतारपुर में,गंगापुर ग्राम में, नारायण दत्त ब्राह्मण के घर जन्मे ब्रजलाल की पांच वर्ष की शैशव अवस्था में दोनों नेत्रों की ज्योति, चेचक के कारण चली गई थी,12 वर्ष की अवस्था में माता पिता का देहावसान हो गया था।भाई और भाभी के दुर्व्यवहार से 15 वर्ष की अवस्था में घर छोड़ दिया।गंगा नदी में खड़े होकर 3 वर्ष तक गायत्री का जप किया।गायत्री जाप से उनके जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन हुआ। जिससे उनकी बुद्धि कुशाग्र और स्मृति तीव्र हो गई थी।हरिद्वार में स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से भेंट हुई,उनसे संन्यास लिया,तत्पश्चात् राजा महाराजाओं के यहां रहकर उनकी क्षात्र शक्ति तथा पौरुष शक्ति को जगाने का काम करते रहे,हरिद्वार कनखल,गया,सोरों, अलवर,भरतपुर आदि स्थानों पर एकमेव उद्देश्य अज्ञान से मुक्ति को लेकर भ्रमण करते हुए मथुरा में पाठशाला खोल, विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे।लगभग अस्सी वर्ष की आयु में 35 वर्ष की आयु के स्वामी दयानंद जी से असली शिष्य के रूप में भेंट हुई , उनके मनोनुकूल शिष्य की प्राप्ति हुई।लगभग 3 से 6 वर्ष तक वेदानुकूल आर्ष ग्रंथों और व्याकरण ग्रंथों निघंटु,निरुक्त आदि का अपने प्रिय शिष्य को अध्ययन कराया,कुछ शर्तों के आधार पर।अपने समान तेजस्वी निर्भय बना,प्राप्त दक्षिणा में लौंग के बदले दयानंद का पूरा जीवन जगती के कल्याण हेतु समस्त अज्ञान अंधकार को चीरने,विद्या का प्रकाश करने हेतु मांग लिया।
ऋषि दयानंद ने सहर्ष स्वीकृति दे, समस्त आंधियों तूफानों को चीरते हुए गुरु के कर्तव्य का पालन कर समस्त पाखंडों,अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों को वेद के प्रमाण द्वारा जनता को मार्ग दिखा दूर करने का भरसक प्रयास कियाक्षतथा अनेकानेक सत्यार्थ प्रकाश,ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि इत्यादि जैसे अनमोल ग्रंथ रच वैदिक पथ प्रशस्त किया,तथा लगभग सत्रह बार विष वमन कर 18 वीं बार में जीवन को आहुत कर दिया।90 वर्ष की आयु में गुरु विरजानंद से वियोग होने पर गुरुवर विरजानंद को अंतिम श्रद्धांजलि के शिष्य द्वारा कहे वे सुंदर शब्द इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं
आज व्याकरण का महासूर्य अस्त हो गया।नमन गुरु स्वामी विरजानंद,नमन गुरु देव दयानंद
आप दोनों की गुरु शिष्य भक्ति को कोटिश: नमन।

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मुख्य अतिथि आर्य नेत्री रजनी गर्ग व अध्यक्ष राजश्री यादव ने भी उनके जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आदर्श गुरु शिष्य की जोड़ी इतिहास में अमर रहेगी।

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केन्द्रीय आर्य युवक परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनिल आर्य ने कुशल संचालन किया व राष्ट्रीय मंत्री प्रवीण आर्य ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

गायिका कुसुम भण्डारी, आदर्श सहगल, कौशल्या अरोड़ा, ऊषा सूद, रजनी चुग, रविन्द्र गुप्ता, कमला हंस, जनक अरोड़ा,सीमा आदि के मधुर भजन हुए।

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