अक्षयतृतीया का पर्वनैनीताल ३०-०४-२०२५ आलेख -संस्कृति अंक-बृजमोहन जोशी नैनीताल।

उत्तराखंड का लोक मानस सदैव से ही ऋतु पर्वो को मनाता आ रहा है। हमारे अंचल में हर ऋतु परिवर्तन को मंगल भाव के साथ मनाने के लिए व्रत, पर्व और त्यौहारों की एक श्रृंखला लोक जीवन को निरन्तर आबद्ध किये हुए हैं।इसी श्रृंखला में अक्षय तृतीया का पर्व वसन्त और ग्रीष्म ऋतु के सन्धि काल का महोत्सव है। वैशाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाने वाला यह व्रत पर्व लोक में बहुश्रुत और बहु मान्य है।भविष्य पुराण के अनुसार सभी कर्मों का फल अक्षय हो जाता है, इसलिए इसका नाम ‘ अक्षय ‘ पड़ा है। यदि यह तृतीय कृतिका नक्षत्र से युक्त हो तो विशेष फल दायिनी होती है। भविष्य पुराण यह भी कहता है कि इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, क्योंकि कृतयुग ( सत्य युग) का ( कल्प भेद से त्रेता युग का) प्रारम्भ इसी तिथि से हुआ है।इस दिन दान देने के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन जिन वस्तुओं का दान किया जायेगा वे समस्त वस्तुएं स्वर्ग में गर्मी की ऋतु में प्राप्त होंगी।इसी दिन नर नारायण, परशुराम, और हयग्रीव का अवतार हुआ था , इसलिए इनकी जयंती भी अक्षय तृतीया को मनायी जाती है।इस दिन को परशुराम तीज भी कहते हैं। अक्षय तृतीया बड़ी पवित्र और सुख सौभाग्य देने वाली तिथि है।
अक्षय तृतीया में तृतीय तिथि, सोमवार और रोहिणी नक्षत्र तीनों का सुयोग बहुत श्रेष्ठ माना गया है। किसानों में यह लोक विश्वास है कि यदि इस तिथि को चन्द्रमा के अस्त होते समय रोहिणी आगे होगी तो फसल के लिए अच्छा होगा और यदि पीछे होगी तो उपज अच्छी नहीं होगी।इस सम्बन्ध में लोक में एक कहावत प्रचलित है – जिसका भावार्थ इस प्रकार है कि – बैशाख की अक्षयतृतीया यदि रोहिणी न हो,पौस की अमावस्या को मूल न हो, रक्षा बंधन के दिन श्रवण और कार्तिक की पूर्णिमा को कृतिका न हो, तो उस पृथ्वी पर दुष्टों का बल बढ़ेगा और उस साल धान की उपज न होगी।
स्कन्द पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है की वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीय को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया। दक्षिण भारत में परशुराम जयंती को विशेष महत्व दिया जाता है।
आप सभी महानुभावों को अक्षय तृतीया के पावन पर्व की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।


