तीन दिवसीय ‘माउंटेन ऑफ लाइफ’ उत्सव – दूसरा दिनपहाड़ों को समझना और सहेजना होगा

देहरादून। अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन में चल रहे तीन दिवसीय ‘माउंटेन ऑफ लाइफ’ उत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत उत्साह और ढेर सारी जिज्ञासाओं के साथ हुई। पहाड़ के जीवन, ज़िंदगी के प्रकृति से जुड़ाव, प्रकृति को समझने उसे सहेजने की तरफ एक और कदम बढ़ाते हुए दूसरे दिन की शुरुआत बच्चों के द्वारा ‘माउंटेन ऑफ लाइफ’ प्रदर्शनी देखने से हुई। गुरुनानक अकेडमी, जीआईसी पटेल नगर, जी आईसी ब्रह्मपुरी, राजीव गांधी नवोदय विद्यालय, सोशल बलूनी स्कूल से आए 404 विद्यार्थियों व 81 शिक्षकों ने प्रदर्शनी को देखा, समझा, सराहा और वहाँ मौजूद अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के साथियों के साथ अपने सवाल और जिज्ञासाएँ साझा कीं। प्रदर्शनी में बिखरे पहाड़ों के रंग, जीवन, संस्कृति आदि को देखना उनके बारे में पढ़ना लोगों में इस बारे में और जानने की इच्छा को बढ़ा रहा था। प्रदर्शनी में जंगल, झील, पहाड़, लोग, पंछी तो थे ही लोक कलाओं का सौंदर्य भी शामिल था। कहीं हाथ से बने सुंदर वस्त्र तो कहीं रिंगाल की कलाकृतियाँ मन मोह रही थीं।
प्रदर्शनी के बाद सेमिनार के दूसरे दिन की कड़ी में अर्जुन अवार्ड से सम्मानित प्रोफेसर हर्षवन्ती बिष्ट और वाडिया इंस्टीट्यूट के सीनियर साइंटिस्ट मनीष मेहता वक्ता थे। डॉक्टर हर्षवन्ती ने अपने जीवन और पहाड़ से प्रेम उनके करीब जाने, वहाँ जाकर जो महसूस हुए, पहाड़ों में कैसे और क्या-क्या बदलाव हुए, ग्लेशियर किस तरह बदल रहे हैं आदि को लेकर चित्रों के माध्यम से तुलनात्मक ढंग अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि किस तरह पहाड़ क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने अनुभवों के बारे में बताया बल्कि क्षरित होते पहाड़ों पर किस तरह नन्हे-नन्हे बीजों को बोने, उनकी परवरिश करने और उन्हें हरा-भरा बनाने के अपने प्रयासों के बारे में बताया। यह बात श्रोताओं के मन को छू गई और यह समझ आया कि सिर्फ दूर बैठकर चिंता करने भर से कुछ नहीं होता कुछ प्रयास भी करने होते हैं। इसी क्रम में दूसरे वक्ता मनीष मेहता ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि एक ग्लेशियर के बनने की प्रक्रिया क्या होती है, कितना समय लगता है और उसके क्षरण से किस तरह पूरी धरती को नुकसान हो रहा है।
इस मौके पर विद्यार्थियों ने बायोडायवर्सिटी के विविध आयामों को समझा, उस पर चर्चा की। कहीं बच्चों ने अपने रंगों से पहाड़ों को उकेरा तो कहीं चिट्ठियाँ लिखीं पहाड़ के नाम और लिखे अपने सपने भी कि वो किस पहाड़ पर जाना चाहते हैं। कुछ चिट्ठियाँ पहाड़ की तरफ से मनुष्यों के नाम भी लिखी गईं। बच्चों पौधों के बारे में जाना, आसपास रहने वाले पंछियों को उनकी आवाज़ से पहचानने की दिलचस्प कोशिश की। हमारे लोकगीतों में किस तरह प्रकृति को सहेजने की उससे प्यार करने की बात है इस बारे में चर्चा हुई। साथ ही चंपावत की भौगोलिक परिस्थिति व संस्कृति के बारे में भी विस्तार से चर्चा हुई। खास बात यह रही कि बच्चों कि जिज्ञासाएँ उनके प्रश्नों के जरिये खुलकर सामने आईं।
इस मौके पर उत्तराखण्ड के लोकगायक, साहित्यकार व संगीतकारडॉक्टर ओम बधानी के गीतों का भी शिक्षकों व विद्यार्थियों ने आनंद लिया।
23 से 25 अप्रैल तक चलने वाले इस तीन दिवसीय कार्यक्रम का कल 25 अप्रैल को अंतिम दिन है। प्रदर्शनी दोपहर तक सभी के लिए खुली रहेगी।



