श्रावणी उपाकर्म- जन्यो पुन्यू संस्कृति अंक आलेख। बृजमोहन जोशी

नैनीताल। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही उपाकर्म जन्यो पुन्यू का प्रसिद्ध काल माना गया है। पूर्णिमा यदि पहले दिन सूर्योदय से २ घड़ी बाद आरम्भ हो और दूसरे दिन १२ घड़ी या उससे अधिक समय तक हो तो यह कर्म दूसरे दिन ही करना चाहिए। दोनों दिन सूर्योदय में पूर्णिमा हो तो पहले दिन ही करने का विधान है। उपाकर्म ग्रहण या संक्रांति के दिन नहीं होता। श्रावणी विशेष कर ब्राह्मणों अथवा पण्डितों का पर्व है। वेद पारायण के शुभारम्भ को उपाकर्म कहते हैं। इस दिन यज्ञोपवीत के पूजन का विधान है। ऋषि पूजन तथा पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करना पर्व का विशेष कृत्य है। प्राचीन समय में यह कर्म गुरु अपने शिष्यों के साथ किया करते थे। यह उत्सव द्विज के वेदाध्ययन और आश्रमों के उस पवित्र जीवन का स्मारक है। अतः इसकी रक्षा ही नहीं, अपितु इसे यथार्थ रूप में मानना हमारा परम धर्म होना चाहिए।
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। हमारे इस अंचल में पहले ब्राह्मण/पण्डित/कुल पुरोहित जी के द्वारा ही अपने अपने यजमानों के परिवार के समस्त सदस्यों को इस मंत्र के साथ रक्षा सूत्र बांधा जाता था – येन बद्धों बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:!तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल!! इस रक्षा सूत्र के महत्व के सम्बन्ध मे एक पौराणिक कथा प्रचलित है जो कि इस प्रकार है-प्राचीन काल में एक बार वर्षों तक देवासुर संग्राम होता रहा,
जिसमें देवताओं का पराभव हुआ और असुरों ने स्वर्ग पर आधिपत्य कर लिया। दुःखी पराजित इन्द्र देव गुरु वृहस्पति के पास गये और कहा कि गुरु देव में इस समय न यहां पर सुरक्षित हूं और न कहीं बाहर ही निकल सकता हूं। ऐसी दशा में मेरा युद्ध करना ही अनिवार्य है,जबकि अब तक के युद्ध में हमारा पराभव ही हुआ है इस वार्तालाप को इंद्राणी भी सुन रही थी। उन्होंने देवराज इन्द्र से कहा कि कल श्रावण शुक्ल पूर्णिमा है और मैं विधी विधान पूर्वक रक्षा सूत्र तैयार करूंगी,उसे आप स्वस्ति वाचन पूर्वक ब्राह्मणों से बंधवा लीजिएगा। इस के प्रभाव से आप अवश्य विजयी होंगे। दूसरे दिन इन्द्र ने रक्षा विधान और स्वस्तिवाचन पूर्वक रक्षा बंधन करवा। जिसके प्रभाव से उनकी विजय हुई और तभी से यह पर्व मनाया जाने लगा। और आज भी हम एक रक्षा कवच के रूप में इस रक्षा सूत्र को धारण करते है।
एक कथा भगवान विष्णु के पांचवें वामन अवतार से भी जुड़ी है कि भगवान नारायण ने छल से राजा बलि से तीन पग भूमि दान में लेकर उसे पाताल लोक भेज दिया था और स्वयं राजा बलि को रोज दर्शन देने के लिए उसके द्वार पाल बन गये थे जब माता श्री लक्ष्मी ने श्रावणी पूर्णिमा के दिन राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधकर अपना भाई बना लिया और भेंट/ उपहार स्वरूप भगवान विष्णु को प्राप्त कर लिया था। कहा जाता है कि तब से यह दिन रक्षा बंधन के रूप में मनाया जाने लगा।
किन्तु आज बाजार वाद के फलस्वरूप तरह तरह की मूल्यवान राखियों व रक्षा सूत्रों का चलन हो गया है। उपरोक्त रक्षा सूत्र के महत्व को हम भूला बैठे हैं पहले पण्डित जी के उपलब्ध न होने पर घर का मुखिया इस दायित्व को करता था घर के सभी सदस्यों को रक्षा सूत्र बांधते।कुछ संयुक्त परिवारों में तो यह परम्परा आज भी बची हुई है। मुझे आज भी याद है कि आज से लगभग ५०-५५ वर्ष पहले तक हम सभी के आचार्य/ कुल पुरोहित/पण्डित जी वर्ष भर में अनेकों बार हमारे घरों में आया जाया करते थे।भारतीय नव वर्ष पर सम्वत्सर वर्ष फल सुनाते थे, अपने हाथों से स्वनिर्मित (दशौर) गंगा दशहरा, प्रतिष्ठित की हुई ” जनेऊ” जन्यो पुन्यू पर तथा वर्ष भर के लिए भी अपने यजमानों के लिए जनेऊ बनाते थे।और जन्यो पुन्यू से पूर्व ही घर घर जाकर अपने यजमानों को दे दिया करते थे। इतना ही नहीं समय-समय पर होने वाले पूजन, अनुष्ठान, संस्कारों, तीज त्योहारों पर शुभ मुहूर्त की जानकारी देते थे।अपने अपने यजमानों के साथ इनका एक परिवारिक रिश्ता होता था ,उस घर के सदस्यों को अपने घर का ही सदस्य मानकर एक वरिष्ठ सदस्य की भांति अपना पूर्ण दायित्व निभाते और मान सम्मान पाते थे।
किन्तु आज के इस वर्तमान समय में हम में से किसी के भी पास समय नहीं है और हम सभी समय के न होने का रोना रोते रहते हैं।अब इन तीज-त्यौहारों,
अनुष्ठानों,संस्कारों,उत्सवों तथा
मेले आदि आयोजनों में वो रौनक कहां अब इन आयोजनों में इनकी लोक आत्मा कहीं भी नजर नहीं आती।
