शारदीय नवरात्र।संस्कृति अंकदिनांक -२५-०९-२०२५ आलेख बृजमोहन जोशी
नैनीताल। शारदीय नवरात्र, विजयादशमी, और शरत्पूर्णिमा ये तीनों परस्पर सूत्र में आबद्ध है। अत एंव ” आश्विन शुक्ल प्रतिपदा” से पूर्णिमा तक के समय को शास्त्र में “देवी पक्ष” कहा गया है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक के समय को ” पितृपक्ष” कहा गया है।इसलिए पहले पितरों के श्राद्ध – तर्पण के उपरांत ” देवी पक्ष” प्रारम्भ होता है। माता-पिता के प्रसन्न होने से सभी देवता प्रसन्न होते हैं
आश्विन कृष्ण अमावस्या ” महालया अमावस्या” शब्द से विख्यात है।सामान्यत: नवरात्र चार हैं। १- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक। २- आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक (इसी नवरात्र के बाद हरिशयनी एकादशी) ३- आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से विजयादशमी तक (इसके बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी देवोत्थान – हरि प्रबोधिनी(देव उठावनी एकादशी) तथा ४- माघ शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक सारस्वत नवरात्र।
इन चारों नवरात्रों में वासंतिक नवरात्र चैत्र में एवं शारदीय नवरात्र आश्विन में। ये दोनों नवरात्र अति प्रसिद्ध है। “शयनाख्य” और ” बोधनाख्य” नामक दो नवरात्र होते हैं। शयनाख्य वासन्ती चैत्र मासीय तथा बोधनाख्य आश्विन मासीय शारदीय नवरात्र कहलाता है।
सर्व प्रथम भगवान श्री राम चन्द्र ने इस शारदीय नवरात्र पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था।अत एंव यह राजस पूजा है। आश्विन शुक्ल पक्ष की विजयादशमी तिथि को दशमुख रावण वध के लिए श्री राम ने प्रस्थान किया।उनके साथ द्विरद,विधु,महाब्ज,नाम के कपि सेनापति तथा समग्र पृथ्वी, दिशा,एवं गगन मण्डलों की व्याप्त करते हुए असंख्य सैन्य थे। इससे यह प्रमाणित होता है कि श्री राम चन्द्र जी ने सर्व प्रथम शारदीय नवरात्र पूजा की।
इस ऋतु में वसन्त एवं शरद नाम के दो भयंकर दानव विभिन्न रोगों के कारण है।इस ऋतु में परिवर्तनों के समय विभिन्न रोग – महामारी,ज्वर, शीतला(बड़ी छोटी),कफ,खाॅसी,आदि के निवारणार्थ शारदीय तथा वासंती ये दो नवरात्र दुर्गा पूजा के लिए प्रशस्त है। दुर्गा अर्थात –
दैत्य नाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तितः।
उकारो विघंननाशस्य वाचको वेद सम्मत।।
रेफो रोगन्घवचनो गश्च पापन्घवाजक:।
भयशत्रुन्घवचनश्राचाकार: परिकीर्तितः।।
देवी पुराण के उपर्युक्त वचनों के अनुसार दुर्गा शब्द में “द”कार दैत्य नाशक,”उ” कार विघ्न नाशक,”रेफ” रोग नाशक,”ग” कार पाप नाशक, तथा “आ” कार भय शत्रुनाशक है।अत एवं दुर्गा ” दुर्गतिनाशिनी” है।
देवी व्रत में कुमारी पूजन परम् आवश्यक माना गया है। सामर्थ्य हो तो नवरात्र भर प्रतिदिन अन्यथा समाप्ति के दिन नौ कुआरियों के चरण धोकर उन्हें देवी रूप मानकर भोजन कराना चाहिए एवं वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार –
१- एक कन्या की पूजा से – ऐश्वर्य की २- दो कन्याओं की पूजा से – भोग और मोक्ष की
३- तीन कन्याओं की पूजा से – धर्म, अर्थ,काम, तिवर्ग की
४- चार कन्याओं की पूजा से – राज्य पद की ५- पांच कन्याओं की पूजा से – विद्या की ६- छ: कन्याओं की पूजा से – षट्कर्म सिद्धी की ७- सात कन्याओं की पूजा से – राज्य की ८- आठ कन्याओं की पूजा से – सम्पदा की ९- नौ कन्याओं की पूजा से – पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। कुमाऊं अंचल में कन्या पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का अर्चन विहित है दस वर्ष से उपर की आयुवाली कन्या का कुमारी पूजन वर्जन किया गया है। दो वर्ष की कन्या कुमारी,तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कन्या कल्याणी, पांच वर्ष की कन्या रोहिणी,छ: वर्ष की कन्या काली,सात वर्ष की कन्या चंडिका,आठ वर्ष की कन्या शांभवी,नौ वर्ष की कन्या दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा – स्वरूप होती है।
कुमाऊं की जो पारम्परिक लोक चित्रकला ऐपण है उसमें भूमि चित्रण (धरातलीय)आलेखन जो गेरू मिट्टी व विस्वार कि सहायता से किया जाता है उसमें जो ऐपण नवरात्र पक्ष में सर्वाधिक रूप से कार्य में लाया जाता है वह है “स्वस्ति” अथवा “खोड़िया”/
“खोड़ी ” इसके अन्तर्गत नव दुर्गा
चौकी का निर्माण किया जाता है। नव दुर्गा चौकी के मध्य में ९ बिन्दुओं की ९ समान्तर पंक्तियां बनाई जाती है और इन बिन्दुओं को विशेष संरचना देते हुए ९ स्वास्तिकों का निर्माण किया जाता है तथा इसके बाहर अष्ट दल कमल बनाकर बेलबूटों आदि से सजाकर नव दुर्गा चौकी का रुप दिया जाता है।इस चौकी का निर्माण देवी पूजन हेतु किया जाता है।नवरात्रि में इस चौकी का बहुत अधिक महत्व होता है।
इस चौकी का आधार पौराणिक है।ऐपण चौकी में बनने वाले अष्ट दल अथवा द्वादश कमल दल कभी लोक पालों के तो कभी दिक पालों के तो कभी भैरव आदी का अलग अलग कर्मकांडों के समय आलेखन किया जाता है। इन कमल दलों को देवताओं की प्रतिष्ठा हेतु बनाया जाता है।















