महाशिवरात्रि से ठाड़ि होली गायन


बृजमोहन जोशी, नैनीताल। कुमाऊं अंचल में आज भी पूस के पहले इतवार से बैठि होली गायन , शिवरात्रि से ठाड़ी होली गायन ,आमल की एकादशी से महिलाओं कि बैठ होली गायन बुड़ होली तक खेली व गायी जाती है।
ठाड़ि (खड़ी) होली का गायन शिवरात्रि से ढोल,नगारे,और मंजीरे के साथ मन्दिरों में प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु बैठकर। अभी इसमें नृत्य शामिल नहीं होता है।होलीकाष्टमी से जब चीर बन्धन होता है तो होली कि विषय वस्तु भी धीरे-धीरे बदलने लगती है।चीर बन्धन पहले सभी गांवों में नहीं होता था। बल्कि उन्हीं गांवों में चीर बांधी जाती थी जिन गांवों को तत्कालीन सामंतों के द्वारा ध्वजा दी गई हो। होलीयां भी पहले सभी गांवों में समान रूप से नहीं गाई जाती थी,मनाई जाती ‌थी जिस रूप में इसे हम आज देखते है । और कई कई गांवों में तो होलियों का चलन न होकर पूरे चैत के महिने भर लोक गीत झोड़े, चांचरी गाई जाती थी।कई कई गांवों में तो आज भी गाई और नाची जाती है।जिन गांवों में सामंतों ने ध्वजाएं दे रखी थी केवल उन्हीं गांवों में चीर बन्धन होलीकाष्टमी को होता था। शायद आज यह बात आश्चर्य चकित करने वाली हो सकती है। क्योंकि अब अपवाद छोड़कर सभी जगहों में आमल की एकादशी को ही चीर बन्धन होता है और रंग भी पड़ता है।चीर बन्धन अपने आप में एक धार्मिक अनुष्ठान है।जो गांव के मन्दिर में सम्पन्न किया जाता है। जिसमें गांव का हर व्यक्ति रंग अबीर गुलाल चीर के धाड़ों के साथ शामिल होता है।चीर पदम् की टहनी की बनाई जाती है। इसमें गांव भर के चीर के धाड़ों को बांधा जाता है।इस अनुष्ठान के बाद होली का टीका लगना शुरू होता है।इसे आधा रंग मानते हैं। होलीकाष्टमी से दशमी तक ठाड़ि होली गायन मन्दिरों में होता है। मंदिर में होली गायन के पिछे एक बात यह है कि कुछ वर्षों तक गांवों में चीर चुराने की प्रथा प्रचलित थी।एक गांव के लोग दूसरे गांव कि चीर चुरा लेते थे।जीस गांव की चीर कि चोरी हो जाती थी वह गांव फिर वह चीर बन्धन नहीं कर सकता था।जब तक वह अपनी चीर को वापस न ले आयें या किसी और कि चीर को चुरा कर न‌ लाये।चीर की रखवाली के ही बहाने से देर रात्रि तक मन्दिरों में होली गायन होता था। चीर चुराने की प्रथा अब समाप्त हो गया गयी है।आमल की एकादशी को महिलाएं आंवले के वृक्ष कि पूजा अर्चना कर वृक्ष को अबीर-गुलाल चढ़ाती है।
इस अनुष्ठान के साथ शुरू होता है गोल घेरे में विशेष पद संचालन के साथ नृत्य करते हुए पुरूषों का ठाड़ि होली गायन , वादन। सामूहिक नृत्य गायन वादन के कारण ही इस होली को ठाड़ि होली कहा जाता है।ठाड़ि होली गायन कि यह धूम छरड़ी तक चलती है। चतुर्दशी ‌व पूर्णिमा को चीर सारे इलाके में घर घर घुमाईं जाती है। पूर्णमासी कि रात पून्यु और पड़यौ प्रतिपदा के जोड़ में होलिका दहन होता है।इस अंचल के बृद्ब लोग बतलाते हैं कि यदि पुन्यू और पड़यौ का जोड़ दिन में पड़े तो चीर तिरयोदशी को और चतुर्दशी के जोड़ में जलाई जाती है। होलियों में कभी कभी खल्लड़़ पड़ने का एक कारण यह भी है। इन्हीं दिनों स्वांग भी खूब खेले जाते हैं इन स्वांगों से वर्ष भर के मन मुटाव आपसी तनाव हंसते हंसते मिटा दिये जाते हैं। यह स्वांग केवल मनोरंजन की परम्परा ही नहीं है बल्कि अपनी अभिव्यक्ति अपनी भड़ास को भी बहुत ही सलीके के साथ व्यक्त करने का सुन्दर माध्यम भी है। महिला होली में पुरूषों कि उपस्थिति नहीं होती थी। महिला होली में खड़ी,बैठ होलियों का मिला जुला रूप स्वांग -ठेठर के रूप में प्रकट होता है। महिलाओं में पुरुष पहनावे का व भाव भंगिमाओं का प्रयोग होता है। ढोलक व मंजीरा वादन किया जाता है। चतुर्दशी से पूर्णिमासी कि रातों में बूढ़ी होलियां जन समूह को झकझोर देती है। बिष्णु पदी होलियों के गायन में नीति भी है, उपदेश भी है, परामर्श भी और अनुशासन भी।

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