कुमाऊं की फ्लोरा है फूल सग्यान (फूल संक्रांति -फूल धेई) संस्कृति अंक-आलेख व छायांकन -बृजमोहन जोशी

नैनीताल। उत्तराखण्ड में यह लोक पर्व कहीं शक सम्वत्सर के स्वागत के रूप में तो कहीं चैत्र माह की विदाई के रूप में वैशाख एक गते को भी फूल देई के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
लोक उत्सव किसी भी समाज की अभिव्यक्ति के सर्वाधिक सशक्त माध्यम होते हैं। इसमें स्थानीय समुदाय के विविध रूप देखे जा सकते हैं।ये उत्सव जहां एक ओर हमें अपनी जड़ों की
ओर लौटाते है, सामूहिकता का भान कराते हैं, मनोरंजन का माध्यम बनते हैं तो वहीं हमें अपने अतीत से सिखने को प्रेरित भी करते हैं। फूल धेई भारतीय नव वर्ष के स्वागत का पर्व है। ऋतु परिवर्तन का पर्व है। इस अंचल में सौर मास का प्रचलन है और वह दिन चैत्र मास का प्रथम दिन‌ होने के कारण भारतीय नव वर्ष का आरम्भ दिन भी माना जाता है।यह पर्व मुख्य रूप से बालक बालिकाओं का पर्व है। यह लोक पर्व इस अंचल में पूरे एक माह तक विविध रूप में मनाया जाता है।
इस अंचल में घर के प्रवेश द्वार को जिसे स्थानीय भाषा में देई/ देली / धेई आदि नामों से पुकारा जाता है। ऐपण की परम्परा उत्तराखंड के कुमांऊनी समाज में ही प्रचलित रही है। इस लोक चित्रकला ऐपण का मुख्य उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इसमें यथार्थ चित्रण कि अपेक्षा प्रतिकात्मक चित्रण की प्रधानता रहती है।और कहा जा सकता है कि कुमांऊनी लोक चित्रकला ऐपण मात्र अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं है, वरन् इसमें धर्म, दर्शन, एवं संस्कृति के तत्व भी अनुप्राणित हैं। धरातलीय आलेखन ऐपण की यह परम्परा बहुत प्राचीन है।भारतीय नववर्ष चैत्र प्रतिपदा के स्वागत का पर्व है फूल सग्यान अर्थात फूलदेई। यह लोक पर्व धेई / देवी/धेई अर्थात घर के मुख्य प्रवेश द्वार को पूजने का पर्व है, ऋतु परिवर्तन का पर्व है, खुशहाली के आगमन का पर्व है। हिमालय कि निचली घाटियों में तो इसे यहां राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में मनाते हैं।इस लोक पर्व फूल संक्रांति के दिन इस अंचल में इस दिन नन्हें नन्हें बालक और बालिकाओं के द्वारा पहले अपने अपने घरों में फिर आस पड़ौस मैं जाकर धेई पूजन किया जाता है। इस अंचल में धेई पूजन के विविध रूप हमें देखने को मिलते है।यह प्रकिया विषुवत संक्रांति (बिखौती) तक यहां चलती है। देई पूजन करते समय इन बालक बालिकाओं के द्वारा बाल गीत भी गाया जाता है – फूल धेई छम्मा देई
दैणी द्वार भर भकार
यौ देली सौ नमस्कार…….
संयुक्त परिवारों में तो घर कि वृद्ध गृहणियां अपनी बहू बेटियों को प्रातः काल अक्सर इस बात के लिए टोकती थी कि धेई मैं कम से कम चार धाण तो दे दो। अर्थात रोज के दैनिक कार्यों कि भांति प्रतिदिन प्रातः काल में घर की गृहणियां धेई में ऐपण देती थी। कन्या(वधू) को विवाह के बाद ससुराल पहुंचने पर गृह मैं प्रवेश करने से पूर्व ऐपण कला में अपनी निपुणता का परिचय धेई मैं ऐपण देकर करना पड़ता था।यह उसके व उसके मायके के सम्मान का प्रश्न भी होता था। इस बात से ही इस कला के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। इससे घर की शोभा तो बढ़ ही जाती है और शुभ कार्य की झलक भी प्रतीत होती है। यह परम्परा हमारी विवाहिता बेटियों के जीवन भर चलने वाली परम्परा है वह आज भी जब जब अपने ससुराल – मायके आती जाती है घर में प्रवेश करने से पहले धेई पूजन करती है तब घर में प्रवेश करती है।
कहीं कहीं इस त्योहार को हल्दौड़ भी कहते हैं। हल्दी की गांठ को अभिमंत्रित करके बच्चों के गले में ताबीज की तरह इसे पहनाया जाता है ताकि बच्चों को ज्वक नी लागो अर्थात पेट सम्बन्धी व्याधी न हो।हमारे इस अंचल में इस माह को लाडिलो चैत कहा गया है। इसे रंगीला महिना कहा जाता है प्रकृति भी रंगीली होती है होली का पर्व भी रंगों का पर्व है कहा गया है कि इस माह गोठ के बैल से लेकर सभी रंगीले हो जाते हैं।यह माह यौवन का प्रतीक भी है।वैशाख मास कै हमारे अंचल में बुढ़े पन का वृद्ध अवस्था का प्रतीक माना गया है और वृद्ध लोगों के सम्मान में बुढ कौतिक मनाया जाता है।इस दिन लोक गीतों लोक नृत्यों कि छटा देखते ही बनती है वैशाख एक गते को।
इस अंचल में आज भी कई गांवों में होलियों का प्रचलन न होकर पूरे चैत्र माह भर लोक गीत गाये व खेले जाते हैं।चैत्र माह से जुड़ी लोक मान्यताओं को अगले अंक में सांझा करता रहूंगा।आप सभी महानुभावों को एक बार पुनः फूल संक्रांति के पावन पर्व कि हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।

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