संस्कृति विशेषांक -गौतम गोत्रीय सामगानाम उपाकर्म ( हरताली/हड़ताली ) आलेख – बृजमोहन जोशी व आचार्य प्रो. भूवन चन्द्र त्रिपाठी।

Advertisement

०५ सितम्बर २०२४ को गौतम गोत्रीय सामगानाम उपाकर्म का पर्व मध्याह्न में स्नान करने के उपरांत देव पूजन, यज्ञोपवीत प्रतिष्ठा, ऋषि तर्पण तदुपरांत यज्ञोपवीत धारण तथा रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाएगा, आज दिन भर शुभ मूहूर्त है। हरितालीका का व्रत ०६ सितम्बर को होगा।
?………हड़ताली इस विषय पर पिछले कई वर्षों से हास्योक्त्त त्रुटि…. ? विषय – तेवाड़ीयों की जनेऊ सियार उठा ले गया..? इस पर जानकारी खोज रहा था, कि गौतम गोत्रीय सामगानाम उपाकर्म बाद में क्यों होता है.. ? वर्ष २०२३ में श्री मां नयना देवी नैनीताल के स्थापन दिवस के शुभ अवसर पर श्री मां नयना देवी अमर उदय ट्रस्ट द्वारा आयोजित श्री मद्भागवत देवी भागवत का आयोजन किया गया जिसमें कथा के कथा वाचक( व्यास ) आचार्य प्रो. श्री भुवन चंद्र त्रिपाठी जी से हड़ताली के विषय पर जो बहु मूल्य जानकारी प्राप्त हुई उस जानकारी को तथा अपनी जानकारी को आपके साथ सांझा कर रहा हूं।
हमारे यहां बोली जाने वाली भाषा कुमाऊंनी में त्यार शब्द त्योहार का वाचक है जिसमें पर्वोत्सव का भाव निहित है। कुमाऊंनी त्यार परम्परागत है, इनको सामूहिक उत्सव कहना अधिक उपयुक्त है। ऐसा ही एक त्यौहार है हड़ताली ,हरितालिका।
हरताली के दिन साम वेदी गौतम गोत्रीय (सामगानाम उपाकर्म ) अपना यज्ञोपवीत (जनेऊ) बदलते हैं ,रक्षा सूत्र को हाथ की कलाई में बांधकर रक्षा बंधन का त्योहार मनाते हैं हड़ताली पर्व के शुभ अवसर पर। जिस तरह ऋग्यजुवेदी भाद्र कृष्ण पक्ष श्रावणी पूर्णिमा के दिन उपाकर्म (जनेऊ) व रक्षा धारण कर इस त्योहार को मनाते हैं , ठीक उसी तरह से गौतम गोत्रीय भी हरितालिका के दिन इस त्योहार को मनाते हैं। लोक विधान के अनुसार-किसी गाड़ गधेरे ,नौले
,गूल,नदी के किनारे जहां जल हो, वहां गोबर व तुलसी की मिट्टी के लेप को पहले अपने शरीर में लगाते है तत्पश्चात स्नान करते हैं, फिर ऋषि तर्पण कर सप्त ऋषियों के पूजनोपरांत प्रतिष्ठित जनेऊ को बदलकर रक्षासूत्र बांधते हैं। अर्थात रक्षा बंधन का त्योहार मनाते है। रक्षा सूत्र बांधते समय यह मंत्र पढ़ा जाता है। येन बद्दो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबल,तेन त्वाम अभिबद्धनामि रक्षे मांचल माचलः।भाद्र पद शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाऐ जाने वाले इस व्रत को हरितालिका कहते हैं।
मेरा मानना है कि हमारे ऋषि मुनियों ने वेदों के अनुसार इस उपाकर्म हेतु अलग-अलग तिथियों का निर्धारण किया होगा। ऋग्यजुवेदीयों के लिए श्रावणी पूर्णिमा के दिन तथा सामवेदीयों के लिए भाद्र शुक्ल पक्ष तृतीया हरितालिका (हड़ताली) का दिन।
प्रो. आचार्य भुवन चन्द्र त्रिपाठी जी के अनुसार – विषय साम- वेदियों का उपाकर्म भाद्र पद शुक्ल पक्ष हस्त नक्षत्र युक्त तिथि में क्यों होता है। जैसा कि सामान्य लोगों कि अवधारणा है कि तेवाड़ीयों की जनेऊ सियार उठा ले गया था इसलिए श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म न मनाकर यह लोग भादो माह में उपाकर्म का पर्व मनाते है ऐसी लोक धारणा बन गयी हैं। जो कि पहले कभी एक मजाक के तौर पर लोग कहते थे। किन्तु नये समय में उसी हास्योक्ति को हम सब सच मानने लगे हैं। वास्तव में ऐसा नही है। तो आइये इस विषय पर थोड़ी चर्चा करने से स्पष्ट हो जायेगा। अलग -वेदों के आधार पर उपाकर्म-
ऋग्वैदियों के उपाकर्म के तीन काल हैं।
१-श्रावण महीने में जब श्रवण नक्षत्र हो।
२-श्रावण शुक्ल पंचमी।
३-जब हस्त नक्षत्र हो। पूर्णिमा भी हो सकती है।
यजुर्वेदियों का उपाकर्म
श्रावण पूर्णिमा को होता है।
अथर्ववेदियों का उपाकर्म-
१-श्रावण पूर्णिमा या भाद्रपद की पूर्णिमा।
२-श्रवण नक्षत्र के आधार पर जैसे ऋग्वेदियों का कभी चतुर्दशी को कभी त्रयोदशी को होता है।
सामवेदियों का उपाकर्म –
भाद्रपद शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र में होता है।
पराशर एवं माधव के ग्रन्थों में-
१-सामगानांसिंहस्थ रवौयुक्ते—
२-ऋष्यश्रृंग मुनि का वचन-
सामग विषये तेषां सिंहार्क एवोक्तं ।अर्थात सभी सामवेदियों का चाहे वो किसी भी शाखा के हों उनका उपाकर्म भाद्रपद के शुक्ल पक्ष हस्त नक्षत्र में ही होगा।ऐसे ही वाक्य गोभिलगृह्य सूत्र में भी कहे गए हैं।अतः स्पष्ट है कि यह सामवेदियों का पर्व वेदोक्त है।जैसे कि अन्य वेदों के बारे में थोड़ी भिन्नता है। यह विषय गहन है। जन सामान्य के जिज्ञासा के लिये शास्त्रों के अनुसार अति संक्षेप में मैने अपनी अल्प मति के अनुसार लिखने का प्रयास किया। इसमें स्वनाम धन्य श्री युत श्री बृजमोहन जोशी जी का आग्रह रहा है तभी यह कार्य सम्भव हुआ। विद्वदजन त्रुटियों के लिये क्षमा करेंगे।
हरतालिका –
धार्मिक मान्यतानुसार – इस व्रत की कथा पार्वती -शिव वार्तालाप है अर्थात पार्वती को कितने ही कठोर तप करने के बाद भगवान शिव पति रूप में मिले। व्रत कथा के अनुसार- बारह वर्ष की कठिन
तपस्या ,चौंसठ साल तक सूखे पत्ते खाकर शिव की आराधना पार्वती ने की थी। माघ मास में वह जल में बैठी रही,और बैशाख मास में वह अग्नि के निकट। देवर्षि नारद ने हिमालय राज को सलाह दी कि वह अपनी कन्या का विवाह भगवान विष्णु से कर दें,और ऐसा ही हुआ ,और नारद यह शुभ समाचार देने भगवान विष्णु के पास चल दिए।लेकिन जब पिता ने पुत्री को यह बात बतलाई तो पार्वती दुःखी हो गई और अपनी सहेली के घर चली गई वहां उन्हें रोता व दुःखी देखकर एक सखी ने वादा किया कि वह हर प्रकार से पार्वती कि सहायता करेगी अगर वह उसे अपने दुःखी होने का कारण बता दें। पार्वती ने बतलाया कि वह मात्र शिव को ही अपना पति चुनना चाहती है अन्यथा वह अपने प्राण त्याग देगी। सखियों ने पार्वती को अपने साथ छिपा
कर रख लिया वहीं पर्वत की एक कंदरा में, पार्वती ने उसी स्थान पर शिव की मिट्टी की मूर्ति बनाई और उनकी आराधना में लीन हो गयी। पार्वती ने व्रत किया और कठिन तपस्या की, तपस्या से प्रसन्न हो शिव प्रकट हुए और उन्होंने पार्वती की इच्छा पूछी और फिर उन्हें वचन दिया कि वह उन्हें पति के रूप में अवश्य प्राप्त होंगे।तत्पश्चात अपनी पुत्री का अन्वेषण करते हुए हिमवान भी वहां आ पहुंचे और सब बातें जानकर उन्होंने पार्वती का विवाह भगवान शंकर के साथ कर दिया । अन्ततः
बर उ शंभु न त रह उ कुमारी । पार्वती के इस विचल अनुराग की विजय हुई। देवी पार्वती ने भाद्र शुक्ल पक्ष तृतीया को हस्त नक्षत्र में शिव की आराधना की थी, इसीलिए इस तिथि को यह व्रत किया जाता है। तभी से भाद्र पद शुक्ल तृतीया को स्त्रियां अपने पति कि दीर्घायु के लिए यथा कुंवारी कन्याएं अपने मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए हरितालिका (हड़ताली) का व्रत करती चली आ रही है।
।।आलिभिहररिता यस्मात-
तस्मात सा हरितालिका।। सखियो के द्वारा हरी (अपहरण करने के कारण ) गयी – इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस व्रत का नाम हरितालिका (हड़ताली) हुआ। इस व्रत के अनुष्ठान से नारी को अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।पार्वती के द्वारा शिव की मिट्टी की मूर्ति का निर्माण कर पूजन किया गया था, उसी के अनुसार हमारे पर्वतीय अंचल में आज भी लोक शिल्प विधा के अन्तर्गत इस दिन महिलाओ के द्वारा डिकार शैली में अर्धनारीश्वर की मूर्ति का निर्माण कर पूजन किया जाता हैं तथा कुमाऊंनी पारम्परिक लोक चित्रकला के अन्तर्गत ऐपण शैली में गेरू मिट्टी व विस्वार कि सहायता से घर के पूजा गृह में,घर के द्वार( देई) पर, भूमि पर जनेऊ चौकी,जनेऊ छापरी तथा बटुक जिसका यज्ञोपवीत संस्कार किया जा रहा है उसके कपाल पर खोड़ी तथा उसे पहनाये जाने वाले कुर्ते के पृष्ठ भाग में भी जनेऊ आदि का निर्माण किया जाता है । प्राकृतिक रंगों कि सहायता से जनेऊ के ज्योति पट्टा का निर्माण किया जाता है।
पूर्व समय में ऋषि मुनि राजाओं के हाथ में ( धागा – सूत )सूत्र बांधकर यह वचन ले लिया करते थे कि वह सदैव इस समाज और धर्म की रक्षा करते रहेंगे। इसके साथ आध्यात्मिक रहस्य भी जुड़ा है,जिस बंधन से हमारी रक्षा हो सके उसे ही रक्षा बंधन कहा जाता है। प्राचीन समय में उपाकर्म का यह त्यौहार ऋषि मुनि अपने शिष्यों के साथ अपने आश्रम में मनाते थे। जनेऊ तब धारण की जाती थी जब गुरु शिष्य को शिक्षा देना स्वीकार करते थे।जनेऊ का इतना अधिक महत्व होता है कि इसको धारण करने के उपरान्त नियमित गायत्री मंत्र का जाप करने के उपरान्त यदि उस व्यक्ति को कुछ भी न आता हो तब भी उसके साथ साथ नौ दैवीय शक्तियां उसके शरीर में हमेशा चलती रहती हैं। यह नौ सुत्र,नौ लड़ी नौ देवताओं के प्रतीक रूप भी है। गायत्री मंत्र का दुरपयोग बहुत ही हानिकारक भी है। आप सभी एक बार पुनः हड़ताली के पावन पर्व की व शिक्षक दिवस के पावन पर्व की बहुत बहुत हार्दिक बधाई व शुभ कामनाएं।

Advertisement
Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad
Advertisement